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भू-अभिनति (Geosyncline)

विद्वानों के मतानुसार पृथ्वी पर प्राचीन स्थलखण्डों का स्वरूप वर्तमान स्थलखण्डों के समान नहीं था । प्राचीन काल के इन भू  खण्डों के क्रमिक विकास होने से आज के वर्तमान महाद्वीपों की उत्पत्ति हुई । प्राचीन काल में ये दृढ़ भूखण्ड सदैव परिवर्तनशील जलीय भागों से घिरे थे । ये अस्थिर जलीय भाग ही भू-सन्नतियां या भू-अभिनतियां कहलाती हैं । विभिन्न विद्वानों ने भू-अभिनतियों एवं पर्वत निर्माण में घनिष्ठ संबंध बताते हुए भू-अभिनतियों को पर्वतों का पालना (Cradle of Mountains)" की संज्ञा दी है । इन भू अभिनतियों में सदैव अवसाद का निक्षेप होता रहता है । भू-गर्भिक हलचलों से उत्पन्न दवाब तथा खिंचाव से ये निक्षेपित पदार्थ वलन के रूप में ऊपर उठने लगते हैं, जिन्हें नवीन वलित पर्वत कहा जाता है ।

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वलित पर्वतों की उत्पत्ति इन्हीं भू-सन्नतियों से ही हुई है । चूंकि वलित पर्वत बहुत ऊंचे हैंअतः भू-सन्नतियों को लम्बी होने के साथ बहुत गहरी भी होना चाहिए, किन्तु पर्वतीय जीवाश्म बताते हैं कि इनका आविर्भाव उथले सागरों में हुआ था । अतः स्पष्ट है कि भूसन्नतियां लम्बीकिन्तु संकरी व उथली जलीय भाग होती हैंजिनमें तलछटीय जमाव के साथ-साथ तली में धंसाव होता रहता है ।

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आर्थर होम्स के अनुसार – “पृथ्वी की पपड़ी के धंसाव से बनी लम्बी पेटी जिसमें तलछट की मोटी परत के साथ  कभी ज्वालामुखी चट्टानें भी सम्मिलित होती हैं । सामान्य भाषा में भू-सन्नति अथवा भू-अभिनति कहलाती है ।

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वानराईपर के शब्दों में “एक लम्बा पतला तलछटीय गड्ढा जिसका निर्माण उत्तरोत्तर नीचे पड़े मोड़ और जमाव का परिणाम होता है । उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि 

1.  1. भू-सन्नतियां प्राय: दो दृढ भूखण्डों के मध्य होती हैं । इनके तटीय भाग अग्र देश कहलाते हैं ।

2. 2. भू-सन्नतियों का रूप सदैव समान नहीं रहताबल्कि भू-गर्भिक क्रियाओं के कारण बदलता रहता है ।

3.  3. भू-सन्नतियां गतिशील रहती हैं ।

4.  4. ये धरातल पर लम्बेसंकरे तथा उथले जलीय भागों के रूप में होती हैं ।

5.   5. इनका अस्तित्व भू-गर्भिक इतिहास के सभी युगों में रहा है ।

भू- अभिनति की संकल्पना

भू-अभिनतियों की संकल्पना का प्रतिपादन सर्वप्रथम अमेरिकी भू-वैज्ञानिक हॉल (J.Hall, 1859) ने अप्लेशियन पर्वत के अध्ययन के आधार पर किया थाजबकि भू-अभिनति का नामकरण डाना (J.T. Dana, 1873) ने तथा सिद्धांत का वास्तविक विकास हॉग (Haug) ने किया था । भू-अभिन्नति से सम्बंधित अग्रांकित संकल्पनाएं प्रमुख हैं 

1.  हॉल तथा डाना की संकल्पना – सर्वप्रथम जेटीडाना ने सन् 1873 ई. में अपने अवलोकन के आधार पर बताया कि वलित पर्वतों में पाई जाने वाली चट्टानें सागरीय उत्पत्ति की हैं । इन चट्टानों का जमाव ऐसे सागरों में हुआ है जो लम्बेसंकरे तथा उथले थेजिन्हें डाना ने सर्वप्रथम ‘'भू-सन्नति’ का नाम दिया और कहा कि – “भू – सन्नतियां लम्बेसंकरेउथले तथा निरन्तर धंसती हुई सागरीय भाग होती हैं । डाना ने चार भू-सन्नतियों का विवरण दिया था 

(अ)    रॉकीज भू-सन्नतियां

(ब)    यूराल भू-सन्नतियां

(स)    टेथिस भू-सन्नतियां

(द)   परिप्रशांत भू-सन्नतियां ।

हाल ने भू-सन्नतियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला तथा सर्वप्रथम वलित पर्वतों एवं भू-सन्नतियों के बीच सम्बन्ध स्थापित किया । उन्होंने बताया कि वलित पर्वतों की चट्टानों का निक्षेप उथले सागरों में हुआ है । निक्षेप के कारण भू-सन्नति की तली में धंसाव होता रहता हैपरन्तु जल की गहराई में परिवर्तन नहीं होता है । भू-सन्नति लम्बाई की अपेक्षा कम चौड़ी होती है ।

हॉग की संकल्पना – “यदि हाल तथा डाना ने भू-सन्नतियों की संकल्पना का प्रतिपादन किया तो हॉग ने प्रतिपादन किया तो हॉग ने उसका संवर्द्धन करके उसे सिद्धांत का रूप दिया ।“

सर्वप्रथम हॉग ने प्राचीन पेल्योज्योइक कल्प का मानचित्र खींचकर उस पर लम्बे तथा संकरे सागरीय भागों को प्रदर्शित किया और बताया कि वर्तमान समय में जहां पर पर्वत पाए जाते है वहां पर पहले सागरीय भागों का विस्तार था । भू-सन्नतियां गहरे जल का भाग होती हैंजिनकी लम्बाईचौड़ाई से अधिक होती है । भू-सन्नतियां प्राचीन दृढ़ भू-खण्डों के बीच जल के रूप में थीं । इनके मानचित्र में निम्नलिखित 5 भूखण्ड थे 

(अ)    उत्तरी अटलांटिक भूखण्ड

(ब)    सिनो साइबेरियन भू-खण्ड

(स)    अफ्रीका-ब्राजील भू-खण्ड

(द)   आस्ट्रेलिया, इण्डिया-मेडागास्कर भू-खण्ड       तथा

(य) पैसिफिक भूखण्ड ।

     इनके बीच रॉकीजयूराल, टेथिस व परिप्रशांत भू-सन्नतियां थी । भू-सन्नतियों के किनारे पर सागरीय अतिक्रमण तथा निवर्तन का प्रभाव होता रहता है । किनारों पर मोटे व गहराई में पतले पदार्थों का जमाव होता है । जब भू-सन्नति के पार्श्व भाग में दवाब पड़ने लगता हैतो वलित पर्वतों का निर्माण होने लगता है । इनके अनुसार यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक भू-सन्नति में तलछटीय निक्षेपधंसावदवाब तथा वलन की क्रिया के रूप में हो हीकभी-कभी भू-गर्भिक हलचलों के कारण यह प्रक्रम बीच में रूक भी सकता है ।

हॉग की संकल्पना में कई दोष हैं । मेसोजोइक कल्प में इन्होंने स्थल के विस्तार को आवश्यकता से अधिक दर्शाया है । भू-सन्नति को अधिक गहरा बताया हैजो  कि भ्रामक है।

शुकर्ट की संकल्पना (Schuchert’s Concept) – शुकर्ट ने भू-अभिनतियों के तीन प्रकार बताये हैं - 


एकल भू-अभिनति (Mono Geosyncline) -  ये भू-अभिनति लम्बे व संकरे जलीय गर्त हैं जिसके जलीय भागों में सदैव धंसाव होता रहता है । इनका विकास एक ही चक्र के दौरान होता है । इसलिए इन्हें एकल भू-अभिनति कहते हैं ।

   बहुल भू-अभिनति (Poly Geosyncline) – ये एकल भू-अभिनतियों की तुलना में अधिक चौड़ी होती हैं । इनकी निर्माण प्रक्रिया एकल भू-अभिनति  के समान ही होती हैलेकिनइनका विकास क्रम कुछ भिन्न है । अधिक दवाब के कारण तलछट में वलन क्रिया द्वारा भू-अभिनति में अनेक समानांतर भू-अभिनतियां  विकसित होती हैं । इनसे जटिल पर्वतीय संरचनाएं उत्पन्न होती हैं । रॉकी तथा यूराल भू-अभिनतियां इसी प्रकार की भू-अभिनतियां हैं ।

   मध्यस्थ भू-अभिनति – ये भू-अभिनतियां लम्बेसंकरे एवं गतिशील सागर के रूप में थीजो चारों ओर से महाद्वीपीय भागों से घिरी थी । ये अगाध गहराई वाली महासागरीय भाग थी । इनका भू-गर्भिक इतिहास उपरोक्त दोनों भू-अभिनतियों की अपेक्षा अधिक लम्बा व जटिल था । इनमें कई भू-अभिनति चक्र या अवस्थाएं घटित हो चुकी हैं । अर्थात कई बार निक्षेपअवतलन व वलन होते रहे हैं । टेथिस भू-अभिनति इसका प्रमुख उदाहरण है । इसी भू-अभिनति से आल्पस व हिमालय पर्वतों। का निर्माण हुआ है ।

4. जे. डब्ल्यूइवान्स की संकल्पना – इवान्स महोदय ने भू-अभिनतियों को ‘तलछटीय ‘ के रूप में परिभाषित किया है । उन्होंने बताया कि भू-अभिनतियों के आकार विस्तार तथा स्थिति में सर्वाधिक भिन्नताएं मिलती हैं । इनके अनुसार भू-अभिनतियां संकरीचपटी तथा वक्राकार होती हैं ये दो महाद्वीपों (दृढ़ भू-खण्डों) के मध्य तथा किनारे व नदियों के मुहाने पर पाई जा सकती हैं । इन्होंने इनमें निक्षेपित तलछट के अन्दर सम्पीडन से उत्पन्न वलनों के परिणामस्वरूप पर्वतों का निर्माण बताया है ।

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