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समस्थिति (Isostasy)

Isostasy शब्द लेटिन भाषा के Iso Statius से लिया गया है । जिसका अर्थ है ‘समान स्थिति' । सामान्यतः समस्थिति का अभिप्राय ' परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी के ऊपर स्थित ऊंचे-नीचे क्षेत्रों के मध्य भौतिक या यान्त्रिक स्थिरता की दशा है ।‘

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परिभाषाएं

होम्स के अनुसार – ‘समस्थिति संतुलन की वह दशा है जो भूपटल पर विस्तृत विशाल पर्वतमालाओं, पठारों व मैदानों के मध्य पाई जाती है ।‘


स्टीयर्स के शब्दों में –‘ पृथ्वी के धरातल पर जहां कहीं भी संतुलन विद्यमान हैसमान धरातलीय क्षेत्रों के नीचे
पदार्थ की मात्रा समान होगी ।‘

उपरोक्त परिभाषा यह इंगित करती है कि 

-        हमारी पृथ्वी पर कहीं ऊंचे पहाड़ कहीं नीची घाटियां है ऐसा एक व्यवस्था अनुकूल समस्थिति के परिणाम स्वरूप ही है अन्यथा घुर्णनशील पृथ्वी पर अधिक ऊंचाई वाले भागों में कुछ अन्य परिस्थितियां देखने को मिलती ।

-        इस संतुलन को बनाये रखने के लिए मजबूत आधार की आवश्यकता होती है । जैसा स्टीयर्स महोदय का कहना है कि धरातलीय क्षेत्रों के नीचे पदार्थ की मात्रा समान होगी तभी संतुलन होगा ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि समस्थिति या संतुलन किसी भी परिस्थिति में हो होता अवश्य है जिसके परिणामस्वरूप ही पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न भू-दृश्य बनते हैं और बिगड़ते हैं । समय में अंतर अवश्य होता है ।

समस्थिति की अवधारणा

समस्थिति या भू-संतुलन को समझाने के लिए बहुत से विद्वानों ने अपनी अवधारणा या विचार प्रस्तुत किए है । समस्थिति या हूं संतुलन के क्षेत्र में प्रेक्षण का कार्य सन् 1735 ई. में एण्डीज पर्वतों में सर्वेक्षण के दौरान पियरे बाफर के द्वारा शुरू हो गया था । सन् 1859 ई. में हिमालय के सर्वेक्षण के दौरान सर जार्ज एवरेस्ट द्वारा गुरुत्वाकर्षण संबंधित कुछ विसंगतियां पाई गयी । परन्तु तात्कालिक परिस्थितियों में समस्थिति के सन्दर्भ में में इतना अधिक शोध शोध नहीं हो पाया था । सन् 1889 ई्. में अमेरिकी विद्वान डटन ने सर्वप्रथम ‘समस्थिति (Isostasy)'  शब्द का प्रयोग किया । प्रमुख अवधारणा या विचार इस प्रकार हैं 

प्राट की अवधारणा (Pratt’s Concept)

प्राट भारत के गंगा – सिंधु नदियों के मैदानी क्षेत्रों में अक्षांशो के निर्धारण हेतु भूगणितीय सर्वेक्षण कर रहे थे, तब उनके समक्ष एक विसंगति उत्पन्न हुई । यही विसंगति आगे चलकर समस्थिति पर अध्ययन, शोध, खोज एवं अन्वेषण का कारण बन गयी । विसंगति यह थी कि इनके निर्देशन में चल रहे अक्षांश निर्धारण सर्वेक्षण में कल्याण या कल्याणपुर नामक स्थान पर त्रिभुजीकरण (Triangulation) तथा खगोलीय (Astronomical)  विधियों द्वारा माप लिये गये । ये माप इस प्रकार भिन्न प्राप्त हुए थे 

-        त्रिभुजीकरण विधि द्वारा प्राप्त माप = 5°23’42.294”

-        खगोलीय विधि द्वारा प्राप्त माप   = 5°23’37.058”

-        अंतर (Difference)                             =    5.236”

उपरोक्त अंतर (Difference) से प्राट न केवल आश्चर्य चकित हुआ बल्कि उसने अंतर का कारण जानने का प्रयास किया । कल्याण नामक स्थान से हिमालय 96 किलोमीटर दूर स्थित है । अतः प्रैट ने अनुमान लगाया कि हिमालय से निकटता के कारण उसमें आकर्षण का प्रभाव साहूल रेखा (Plumb Line) पर पड़ा होगा । ( किसी स्थान पर अक्षांश रेखा का खगोलीय निर्धारण स्वतंत्र रूप से लटकते हुए साहूल (Plumb bob)  की दिशा के अनुसार होता है । साहूल रेखा Plumb Line) किसी स्थान पर आकर्षण शक्ति की दिशा को दिखाती है । पृथ्वी के भू-आभ (Geoid) होने के कारण साहूल रेखा सर्वत्र समुद्र तल की ओर लम्बवत न होकर कुछ न कुछ विक्षेप (Deviation) प्रकट करती है ।)

जब उन्होंने समस्त पर्वतीय पिण्ड का घनत्व भू-पटल की शैलों के औसत घनत्व के बराबर 2.7 मानकर गणना की तो आश्चर्यचकित रह गये । इस गणना के अनुसार कल्याण नामक स्थान का माप में अंतर (Difference)  5.236” के बजाय 15.885” होना चाहिए था । इस प्रकार साहूल रेखा का झूकाव हिमालय के कम आकर्षण के कारण था । अब इस समस्या को सुलझाने के लिए प्राट के पास दो विकल्प थे 

1.     पर्वतों की रचना कम घनत्व की शैलों से हुई है ।

2.     पर्वतीय उच्च भाग के अधिक पदार्थ या द्रव्यमान (Mass) का  उसके नीचे कम घनत्व वाले पदार्थ से होगा ।

उपरोक्त दोनों दशाओं में हिमालय पर्वतों का आकर्षण कम होगा । सम्भवतः इसी कारण साहूल रेखा के विक्षेप में कमी आई । अधिकांश विद्वानों ने प्राट के इस मत का समर्थन किया है । उनके अनुसार “भू-पटल के प्रधान स्थलरूपों द्वारा उत्पन्न स्थानीय आकर्षण की अधिकता का संतुलन धरातल के नीचे पदार्थ के घनत्व की कमी द्वारा हो जाता है ।“

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प्राट ने बताया कि ऊंचाई व घनत्व में उल्टा अनुपात होता है तथा क्षतिपूर्ति तल (Level of Compensation) के ऊपर घनत्व में भिन्नता पाई जाती है तथा नीचे घनत्व समान रहता है । इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक प्रयोग किया । उन्होंने विभिन्न आकार एवं घनत्व के लोहेसीसा, एंटीमनीजस्ता के टुकड़े पारे से भरे बर्तन में तैरने दिया । इनका भार समान था । अतः ये पारे में समान गहराई तक डुबेंगें । इस प्रकार भिन्न घनत्व वाले पर्वत पठार एवं मैदानी खण्ड अधः: स्तर में एक समान गहराई में प्रविष्ट हैं ।

एयरी की अवधारणा (Airy’s Concept)

खगोलविद एयरी प्रसिद्ध आर्किमिडीज के सिद्धांत से प्रेरित होकर अपने विचार प्रस्तुत किए थे । उनके अनुसार कम घनत्व की शैलों तथा सियाल निर्मित भू-पटल अधिक सघन सिमा पर तैर रहा है । विभिन्न स्थलरूपों सहित तैर ही नहीं रहा बल्कि काफी गहराई तक प्रविष्ट भी है । आर्किमिडीज सिद्धांत के अनुसार उत्तराती हुई वस्तु अपने नीचे से द्रव्यमान के बराबर ही द्रव्यमान को हटा देती है । जल में उतराती हुई हिमशिला का एक भाग जल के ऊपर वह 9 गुणा भाग जल के नीचे रहता है । इस प्रकार स्थल के ऊपर उभरे भूभाग अपनी ऊंचाई की अपेक्षा 9 गुना अध: स्तर में डूबे होने चाहिए । (इस प्रकार एयरी ने हिमालय के कम आकर्षण का समाधान किया  साहूल रेखा का हिमालय की ओर कम झुकाव इसलिए है कि इन ऊंचे पर्वतों के नीचे काफी क्षेत्र में सघन व भारी बेसाल्ट पदार्थ को हटा दिया है ।)

एयरी ने अपने मत को एक प्रयोग द्वारा भी स्पष्ट किया । उन्होंने समान घनत्व किंतु विभिन्न ऊंचाई वाले लोहे के टुकड़ों को पारे से भरे बेसिन में डुबो दिया । यह टुकड़े अपने आकार के अनुसार भिन्न - भिन्न गहराई तक डूबते गए । अधिकतम उभरा टुकड़ा अधिकतम गहराई तक रहेगा यही व्यवस्था स्थलखण्डों के रूप में लागू होती है ।

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उपरोक्त एयरी के विचार को प्राट से अधिक मान्यता मिली । परन्तु एयरी के ये विचार दोषमुक्त नहीं हैं । क्योंकि एयरी के विचार से हिमालय की जड़ 2.70 लाख फीट गहरी होनी चाहिए । लेकिन भू-पटल में प्रति 32 मीटर की गहराई पर 1° सेंटीग्रेड तापमान बढ़ जाता है । इतनी गहराई पर हिमालय की जड़ें द्रव अवस्था में होंगी ।

डटन की अवधारणा (Dutton’s Concept)

समस्थिति शब्द का प्रयोग करने का श्रेय डटन महोदय को ही है । ये प्राट के अनुयायी थे । ये मूल रूप से महाद्वीपों एवं महासागरों के मध्य संतुलन की अवस्था को व्यक्त करना चाहते थे । उनका मत था कि भू-पटल के पर्वत, पठारमैदान महासागरीय बेसीन आदि असमतल भागों के नीचे समान भार या घनत्व पाया जाता है । ऊंचे उठे भू-भाग कम सघन शैलों से तथा निचले भू-भाग अधिक सघन शैलों से निर्मित है । यदि किसी कारण से पृथ्वी के भार में कमी या वृद्धि होती है तो भू-पटल पर अवश्य ही परिवर्तन होते हैं । परन्तु यह परिवर्तन अत्यंत मंद गति से होते हैं । तत्काल अनुभव नहीं किए जाते हैं ।

समस्थिति की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए डटन ने भू-गर्भ में एक ऐसे तल की कल्पना की है जिस पर ऊंचे उठे भाग एवं नीचे धंसे भागों का दाब समान रहता है । इस तल को समदाब तल (Leval of Uniform Pressure), समस्थिति तल (Isostatic Level) या क्षतिपूर्ति तल (Level of Compensation) कहते हैं ।

हेफोर्ड तथा बोवी की अवधारणा (Hayford’s and Bowie’s Concept)

अमेरिकी विद्वान हैफोर्ड (1910) तथा बोवी (1917) ने संयुक्त राज्य अमेरिका में भू-सर्वेक्षण के दौरान अनेक भू-गणितीय केन्द्र स्थापित किये । उन्होंने साहूल रेखा की सहायता से खगोलीय विधि द्वारा अक्षांश निर्धारित किये । तत्पश्चात् त्रिभुजीकरण द्वारा प्राप्त परिणामों से मापों की तुलना की । प्राट की भांति हैफोर्ड भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भू-गर्भिक स्तरों एवं भू-पटल के उभरे भागों के मध्य एक व्यवस्था पाई जाती है 

हैफोर्ड तथा बोवी ने भू-पटल के विभिन्न स्थलरूपों का घनत्व उनकी ऊंचाई के अनुसार भिन्न माना है पर्वतों के नीचे हल्के शैल एवं समुद्रों के नीचे भारी शैलों की उपस्थिति मानी  समान क्षैतिज क्षेत्रों के नीचे समान द्रव्यमान या संहति की कल्पना की । भू-पटल के नीचे निश्चित गहराई पर एक ऐसे क्षतिपूर्ति तल की कल्पना की जहां कोई भी गुरुत्व विसंगति नहीं पाई जाती । इस क्षतिपूर्ति तल के नीचे समान घनत्व की शैले स्थित होंगी ।

जोली की अवधारणा (Joly’s Concept)

सन् 1925 में जोली ने बताया कि एयरीहैफोर्ड तथा बोवी की संकल्पनाएं साम्यता रखती है  दोनों में समान क्षेत्रफल के नीचे समान पदार्थ के हटने को स्वीकार किया गया है  हैफोर्ड तथा बोवी के क्षतिपूर्ति तल का खण्डन करते हुए जोली ने 16 किलोमीटर मोटे क्षतिपूर्ति कटिबन्ध (Zone of Compensation) को मान्यता दी । यह एक असमान घनत्व वाली परत है । इस परत में विभिन्न घनत्व वाले भागों का निचला तल समान न होकर भिन्न होता है । इस कटिबंध में ऊपरी परतों के घनत्व को संतुलित करने वाले पदार्थों का वितरण पाया जाता है ।

होम्स की अवधारणा (Holme’s Concept)

एयरी की भांति होम्स की भी यह मान्यता थी कि उच्च भू-भाग हल्के पदार्थों से निर्मित होते हैं । संतुलन बनाए रखने के लिए उनका अधिकांश भाग भू-पटल की गहराई तक डुबा रहता है । उन्होंने भूकम्पीय तरंगों के आधार पर भिन्न घनत्व वाली भू-गर्भिक परतों की रचना भी बतायी । इनके अनुसार उच्च भू-भाग हल्की शैलों से निर्मित है तथा अपना संतुलन बनाए रखने के लिए वे गहराई तक भू-गर्भ में प्रविष्ट रहते हैं । पर्वतीय भागों के नीचे सियाल परत 40 किलोमीटर या अधिक मोटाई की है । मैदानों के नीचे 10 या 12 किलोमीटर एवं महासागरों के नीचे सियाल परत बहुत पतली या अनुपस्थित होती है । होम्स ने यह स्पष्ट किया कि भू-पटल पर उच्च भू-भाग इसलिए स्थिर रहते हैं क्योंकि उनके नीचे काफी गहराई तक कम सघन पदार्थ स्थित है । होम्स ने यह स्वीकार किया कि व्यवहार में पृथ्वी पर पूर्ण संतुलन या समस्थिति नहीं पाई जातीसंतुलन की दशा अवश्य दृष्टिगोचर होती है ।

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