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पर्यावरण प्रबंधन

‘पर्यावरण प्रबंध' शब्द जितना नवीन है । उससे कहीं अधिक प्राचीन इसकी कार्य व्यवस्था है । क्योंकि हमारे पूर्वज पर्यावरण के साथ पूर्ण तालमेल एवं व्यवस्थित होकर अपने जीवन को आगे बढ़ाया है । अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वे प्रकृति पर ही निर्भर थे । प्रकृति को ही पालनकर्ता मानते थे और अपनी सीमित आवश्यकताओं मैं ही प्रसन्न रहते थे । पर्यावरण से उनका संबंध सहजता पर आधारित था ।  पर्यावरण के प्रति उनके विकसित  ज्ञान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे जानते थे की आवश्यकता से अधिक फसल उगाने व चराई कराने से मिट्टी का क्षरण होता है और उपजाऊ भूमि मरुस्थल में बदल जाती है । 

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                                       वर्तमान समय के तथाकथित विकास ने हमारे पर्यावरण के प्रति ज्ञान को सीमित कर राष्ट्रों के मध्य क्षेत्रीयता की भावना व आर्थिक समूहों का निर्माण कर बड़ी मात्रा में गरीबी व हिंसा को बढ़ाया है । आज मात्र 20% लोग हमारे ग्रह के 80% साधनों का उपयोग कर रहे हैं । मनुष्य की कृत्रिम आवश्यकताएं निरंतर बढ़ रही हैं, और उनकी पूर्ति भी हो रही है; परंतु पर्यावरण प्रबंध की व्यवस्था के अभाव में पर्यावरण के तत्वों का गुणात्मक ह्रास  हो रहा है ।

र्यावरण प्रबंधन का अर्थ एवं अवधारणा


                                       पर्यावरण प्रबंध का आशय एक ऐसी व्यवस्था से है जिसके द्वारा न केवल संसाधनों का युक्ति संगत उपयोग हो सके अपितु मानवीय आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए पर्यावरण की क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित किया जा सके । दूसरे शब्दों में पर्यावरण प्रबंध के अंतर्गत संसाधनों का दोहन, विनियोजन एवं प्रौद्योगिकी के विकास एवं संस्थागत परिवर्तन की दिशाओं का निर्धारण मानव की तात्कालिक आवश्यकताओं के साथ-साथ भावी आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखकर किया जाता है ।
                                      पर्यावरण प्रबंधन की अवधारणा या कार्यनीति में वे सभी प्रयास सम्मिलित है जिससे मानवीय आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को पूरा करने की वर्तमान एवं भावी क्षमताओं में वृद्धि हो, अर्थात मानव कल्याण न  केवल वर्तमान में बल्कि भावी समय में भी सुनिश्चित किया जा सके । पर्यावरणीय दशाओं में ह्रास को रोका जा सके । जिससे पारिस्थितिकी संतुलन बना रहे ।

पर्यावरण प्रबंध की आवश्यकता


                                 वर्तमान विश्व इस संदर्भ में जागरूकता के साथ चिंतित है कि जिस पर्यावरण में हम रहते हैं वह बड़ी तेजी से दूषित हो रहा है कुछ वर्षों पहले तक वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास को मानव जाति एक सहज स्वाभाविक मानवीय उपलब्धि मानकर चल रही थी जिसकी कोई सीमा नहीं थी लेकिन जल्दी ही यह एहसास होने लगा की औधोगिक विकास कोई अनंत तक चलने वाली सरल रेखा नहीं है उसकी सीमाएं हैं और उन सीमाओं की अनदेखी करना भयंकर ही नही प्रलयंकर भी हो सकता है । पिछले 150 वर्षों में स्वयं के कल्याण मैं ही मनुष्य इतना अधिक व्यस्त  रहा और वह भूल गया कि “प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का एक कारण है जिसका कुछ न कुछ परिणाम या प्रभाव अवश्य होता है ।“इस प्रकार मनुष्य ने अपनी बौद्धिक क्षमता का एक पक्षीय परिचय देते हुए पृथ्वी की सतह की संरचना मैं घास प्रदेश जैसे क्षेत्रों में  कृषि, वनों की कटाई, कृत्रिम झील, सिंचाई प्रणाली आदि के निर्माण द्वारा परिवर्तन करके खनिज उत्खनन, वायुमंडल तथा जल स्त्रोतों में विभिन्न अपशिष्टों के द्वारा जैवमंडल में परिवर्तन करके तथा क्षेत्रीय एवं विश्व स्तर  पर ताप एवं ऊर्जा संतुलन में परिवर्तन कर दिया । मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संतुलन में किये गये इन परिवर्तनों का परिणाम आज हमें जल , वायु,  भूमि प्रदूषण, अम्लीय वर्षा, घटते वन एवं वन्य जीव, बाढ़, सूखा, मिट्टी का कटाव, कृषि योग्य भूमि का अपक्षरण,  मरुस्थल प्रसार, भू-स्खलन, जल संकट, भूगर्भिय जल की कमी, प्रर्यावरण का कीटनाशकों द्वारा विषकरण, विकीरण के जैविकीय दुष्प्रभाव , जनसंख्या में असमान वृद्धि, छोटे-छोटे क्षेत्रों में बढ़ती भीड़, अस्थिर पारिस्थितिकी तंत्रों, ओजोन क्षयीकरण  एवं विश्व तापमान में वृद्धि के रूप पर में परिलक्षित होता है । यह पर्यावरणीय दुर्दशा पृथ्वी पर मानव के लिए खतरा बन रही है । सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि ये समस्या मानव द्वारा पर्यावरण की  स्वनियमन प्रणाली की अनदेखी के कारण हुई  है । इस प्रकार वर्तमान में प्रबंध की अति आवश्यकता है ।

पर्यावरण प्रबंध हेतु आवश्यक उपाय

                                       पर्यावरण प्रबंध मानव और पर्यावरण के बीच संबंधों को सुधारने की प्रक्रिया है । जिसका उद्देश्य मानवीय क्रियाकलापों का नियमन करना है ताकि पर्यावरण के तत्वों की नैसर्गिक गुणवत्ता बनी रहे ।  उपरोक्त उद्देश्य की प्राप्ति हेतु स्थानीय स्तर से विश्व स्तर तक निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं –

•    राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण नीति बनाना और इसे पूरी तरह से लागू करना ।
•    पर्यावरण प्रबंधन के लिए व्यापक आधार पर आंकड़े जमा करना और उनके विश्लेषण की क्षमता विकसित करना।
•    विकास योजनाओं को शुरू करने से पहले पर्यावरण पर उनके प्रभाव का आकलन करना ।
•    कारखानों से हवा में निकलने वाले जल में अथवा भूमि के अंदर फेंके जाने वाले अपशिष्ट पदार्थों के मानक स्तर निर्धारण करना और ऐसे कानून बनाना जिसके अंतर्गत इन मानक स्तरों पर कड़ाई से पालन हो सके
•    विषैले और खतरनाक अपशिष्ट पदार्थों को जमा करने, लाने – ले – जाने, भंडारण और निपटान में पूरी सुरक्षा बढ़ते जाने के लिए कानून बनाना ।
•    प्रस्तावित नई बस्तियों में पर्यावरण के बुनियादी मानदंड सुनिश्चित करने के लिए कानूनों का सख्ती से पालन करवाना और पहले से मौजूद बस्तियों में बेहतर पर्यावरण दशाओं की व्यवस्था करना ।
•    कृषि में रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल को कम से कम करने, रोकने और नियंत्रित करने का प्रयास करना ।
•    भूमि उपयोग योजना और विशेषकर जल विभाजक प्रबंध करना ताकि पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।
•    तटवर्ती क्षेत्रों में पूर्ण सावधानी से सतत विकास कार्यक्रम चलाना ।
•    लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा पर्यावरण सरंक्षण की भावना विकसित करना ।
•    व्यक्तिगत स्वार्थों को रोकने तथा जनहित को बढ़ावा देने वाले नियमों का निर्माण एवं क्रियान्वयन करना ।
•    जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करना ।
•    भौगोलिक पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकी का विकास कार्यों के लिए उपयोग करना ।
•    अवक्रमित पर्यावरण का पुनर्जनन करना ।

                 उक्त उपायों को ध्यान में रखकर किसी भी क्षेत्र की पर्यावरण प्रबंध की कार्यनीति तैयार की जा सकती है जो उत्पादन और पर्यावरण में धनात्मक सहसंबंध स्थापित कर अनुचित और से सफल नीतियों में सुधार, संसाधन और प्रौद्योगिकी में संतुलन तथा लाभदायक आय के विकास का मार्ग प्रशस्त करें ।

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