Ad Code

* Bodhshankh EduMart and Study Point *

भारतीय मृदा

 bodhshankh


भारत एक कृषि प्रधान देश है । अतः यहां मिट्टी सबसे प्रमुख संसाधन है । मिट्टी की उर्वरता से ही फसल की उत्पादकता निर्धारित होती है । मृदा निर्माण एक जटिल व सतत् क्रियाशील प्रक्रिया है । जिसमें मूल शैलेजलवायुवनस्पतिभूमिगत जलसुक्ष्मजीव आदि अनेक कारक मिट्टी की प्रकृति निर्धारित करते हैं । भारत के अधिकांश भागों (विशाल मैदानतटीय क्षेत्र एवं दक्कन) की मिट्टियां बाह्यजात प्रक्रमों से निर्मित है । जिनका निर्माण उनके स्थान पर नहीं हुआ है । कांप मिट्टी (जलोढ मृदा) नदियों द्वारा लाए गए अपरदित तलछट से निर्मित हैंजबकि दक्कन ट्रैप की लावा मिट्टी ज्वालामुखी शैलों के विखण्डन से निर्मित हुई हैं ।

मृदा का वर्गीकरण

भारत की प्रमुख मिट्टियों में कांपीय (जलोढ) मृदा देश के लगभग 43.4% क्षेत्रफल पर, लाल मिट्टी 18.6% क्षेत्रफल पर, काली मृदा 15.2% क्षेत्रफल पर, लेटराइट 3.7% क्षेत्रफल पर तथा अन्य (मरुस्थलीयलवणीय, पर्वतीय व अन्य गौण स्वरूप वाली मृदा) मिट्टियां 17.9% क्षेत्रफल पर विस्तृत है । मिट्टियों की प्रकृतिगुणधर्मजलवायु व वनस्पति के साथ अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर भारतीय मृदा का वर्गीकरण अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से किया है । प्रमुख मिट्टियों का वर्गीकरण निम्नानुसार है 

1. कांपीय या जलोढ मृदा

भारत में कांपीय या जलोढ मृदा विशाल सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानी क्षेत्र, नर्मदा, ताप्तीमहानदीगोदावरीकृष्णा व कावेरी की घाटियों एवं केरल के तटवर्ती भागों में लगभग 15 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में विस्तार है । यह अधिकांशतः हिमालय से निकलने वाली नदियों द्वारा अपरदित तलछट से निर्मित है । यह हल्की से मध्यम राख जैसे भूरे रंग की है तथा गठन में रेतीली से दोमट प्रकार की है । विशाल सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदानी क्षेत्र में नदियों से बाढ़ आने से नवीन कांप मिट्टी की परत बिछ जाती हैजिसे ‘खादर’ कहा जाता है । पुरानी कांप वाली व बाढ़ से अप्रभावित मृदा ‘बांगर' कहलाती है । बांगर में कंकड़ तथा अशुद्ध कैल्सियम कार्बोनेट की ग्रंथियां पाई जाती हैंजिन्हें ‘कंकड़’ कहा जाता है । शुष्क क्षेत्रों में लवण तथा क्षार के निक्षेप भी पाये जाते हैं, जिन्हें ‘रेह’ कहा जाता है । बांगर के निर्माण में चीका का प्रमुख योग रहता हैंकहीं-कहीं दोमट या रेतीली-दोमट मिलती है । बांगर की उर्वरता बनाये रखने के लिए भारी मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है ।

कांपीय या जलोढ मृदा में पोटाशफॉस्फोरस अम्लचूना तथा जैविक पदार्थों से समृद्ध होती है परंतु नाइट्रोजन व ह्यूमस तत्वों की बहुत कमी। होती है । चावलजूटगन्नागेंहूमक्काकपासतिलहन तथा सब्जी आदि फसलों के लिए यह मिट्टी उत्तम है ।

2. लाल मृदा

यह मृदा प्रायद्वीपीय क्षेत्र में लगभग 6.1 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तमिलनाडुकर्नाटकमहाराष्ट्रआंध्रप्रदेशछत्तीसगढ़उड़िसा एवं झारखंड के क्षेत्रों में व्यापक रूप से तथा पश्चिमी बंगालदक्षिणी उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में पाई जाती  हैं । लाल मृदा आर्कियन ग्रेनाइटनीसकुड्डप्पाविंध्यन तथा धारवाड़ शैलों के ऊपर हुआ है । इनका लाल रंग लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है । इस मिट्टी का गठन बालू से चीका तक, प्रधानत: दोमट प्रकार का है । इस मृदा में कंकड़कार्बोनेट तथा कुछ घुलनशील लवण पाए जाते हैं । लाल मृदा में चूना, मैग्नीशियमफॉस्फेटनाइट्रोजनपोटाश एवं ह्यूमस की कमी रहती है । उच्च भूमि में इस मिट्टी की परत महीन, बजरी युक्तबलुई, पथरीली एवं छिद्रयुक्त होती है जबकि निम्नभूमियों व घाटियों में ये समृद्धगहरीउर्वर तथा गहरे रंग की होती है जहां कपासगेंहूदहलन, तम्बाकूज्वारअलसी,मोटे अनाजआलू व फलों की खेती के लिए उपयुक्त होती है । उच्च भूमि के क्षेत्रों में यह बाजरे की फसल के लिए उपयुक्त होती है । यह अत्यधिक निक्षालित (Leached) मृदा है ।

3. काली मृदा

भारत में काली मिट्टी लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में विस्तृत है । यह मुख्यत: महाराष्ट्रपश्चिमी मध्यप्रदेशगुजरातराजस्थानआंध्रप्रदेशकर्नाटकतमिलनाडु एवं  उत्तरप्रदेश राज्यों में दक्कन लावा के अपक्षय से हुआ है । इस मिट्टी को स्थानीय भाषा में ‘रेगुर' या ‘काली कपास की मिट्टी' तथा अन्तर्राष्ट्रीय रूप से ‘उष्ण कटिबन्धीय चरनोजम’ कहा जाता है । इस मिट्टी का रंग गहरे काले से हल्के काले तथा चेस्टनट तक है । इस मृदा में लोहाचूनाकैल्शियमपोटाशएल्यूमीनियम तथा मैग्नीशियम कार्बोनेट की प्रचुरता होती है किन्तु नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं जैविक पदार्थों की कमी रहती है । काली मृदा में लम्बे समय तक नमी धारण करने की क्षमता होती है । यह मृदा भीगने पर कठोर तथा सूखने पर दरारें पड़ जाती है । काली मृदा अत्यधिक उर्वरक होती है । यह कपासतूर, खट्टे फल, तम्बाकूगन्नाज्वारमोटे अनाजअलसीअरण्डीसफोला आदि फसलों के लिए उपयुक्त मृदा है ।

4. लेटराइट मृदा

देश के लगभग 1.26 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में लेटराइट मृदा का विस्तार है । यह मृदा मुख्यत: सह्याद्रिपूर्वी घाटसतपुड़ाविंध्याचलअसममेघालय एवं राजमहल के क्षेत्रों में पाई जाती है । लेटराइट मृदा का स्वरूप ईंट जैसा होता है । यह भीगने पर कोमल तथा सूखने पर कठोर हो जाती है । यह उष्णकटिबंधीय प्रारुप की मृदा है जहां मौसमी वर्षा होती है । भीगने तथा सूखने से इनका सिलिकामय पदार्थ निक्षालित हो जाता है । इस मिट्टी का लाल रंग लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है । यह मृदा लौह तथा एल्यूमीनियम से समृद्ध होती हैकिन्तु नाइट्रोजनपोटाशपोटेशियमचूना तथा जैविक पदार्थ की कमी होती है । यह अनुपजाऊ मृदा है, परन्तु उर्वरकों के प्रयोग कर चावलरागीगन्नाकाजू आदि विविध फसले प्राप्त की जा सकती है ।

5. पर्वतीय मृदा

यह मृदा गठन में गाद युक्त दोमट प्रकार कीरंग में गहरी कत्थई होती है । यह सामान्यतः हिमालय की घाटियों एवं ढाल वाले क्षेत्रों में 2100 -3000 मीटर तक की ऊंचाई वाले भागों में पाई जाती है । यह कम गहराई वाली मृदा है । इस मृदा में फलदार वृक्षों की फसलें तथा आलू की खेती अच्छी होती है ।

6. मरूस्थलीय मृदा

राजस्थानसौराष्ट्रकच्छहरियाणा तथा दक्षिणी पंजाब के लगभग 1.42 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में मरूस्थलीय मृदा का विस्तार है ।  इस मृदा में घुलनशील लवणों का उच्च प्रतिशत रहता है तथा मोटे रवें की होने के कारण  नमी धारण करने की क्षमता बहुत कम होती है । यह बलुईकुछ स्थानों पर बजरी युक्त स्वरूप में है । इसमें जैविक पदार्थों तथा नाइट्रोजन की कमी हैपरन्तु कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा भिन्न-भिन्न  स्वरूप में पाई जाती है । सिंचाई की सहायता से खाद्यान्नी फसलें तथा कपास का उत्पादन उपयुक्त रहता है । असिंचित क्षेत्रों में  ज्वारबाजरा तथा अन्य मोटे अनाज का उत्पादन उपयुक्त रहता है ।

7. वन्य मृदा

यह मृदा हिमालय के 3000 – 3100 मीटर की ऊंचाई तक शंकुधारी वन क्षेत्रों में जहां धरातल वृक्षों की पत्तियों से ढका रहता है तथा सह्याद्रिपूर्वी घाट व उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्रों में पाई जाती है । इस मृदा में जीवांश की प्रचुरता होती है, परन्तु पोटाशफॉस्फोरस तथा चूने की कमी रहती है । यह मृदा बागाती तथा फलोद्यानों के लिए आदर्श है ।

8. अन्य मृदाएं

1. लवणीय एवं क्षारीय मृदा 

     पंजाब, हरियाणा उत्तरप्रदेश तथा महाराष्ट्र के शुष्क भागों में लगभग 68000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में इस प्रकार की मृदा का विस्तार है । केशिका क्रिया से धरातल पर लवणों की परत बन जाती है । पंजाब एवं उत्तरप्रदेश के नहर सिंचाई क्षेत्रों में तथा उच्च जल स्तर के क्षेत्रों में इस प्रकार मृदा का विकास हुआ है । यह अनुर्वर मृदा स्थानीय भाषा में ‘रेह’, ‘कल्लर'‘ऊसर’, ‘राथड’, ‘थूर’, ‘चोपन’ आदि नामों से जानी जाती हैं । इस मृदा को जिप्सम, चूना तथा उचित अपवाह के प्रयोग कर तथा बरसीमचावलगन्ना आदि लवण प्रतिरोधी फसलें उगाकर पुनरुद्धारित किया जाता है । इस प्रकार की मृदा में चावल, गेंहूकपास, गन्नातम्बाकू आदि प्रमुख फसलें उत्पादित होती है ।

2. पीट एवं दलदली मृदा

पीट मृदा मुख्यत: केरल राज्य में वर्षा ऋतु के समय जलमग्न होने वाले  क्षेत्रों में पाई जाती है । यह कालीभारी एवं अत्यधिक अम्लीय होती है । धान की फसल के लिए पीट मृदा आदर्श होती है । यह जैविक पदार्थों से समृद्ध होती हैपरन्तु पोटाश व फॉस्फेट की कमी होती है । दलदली मृदा उड़िसापश्चिम बंगालतमिलनाडुउत्तरप्रदेशबिहार के तटवर्ती क्षेत्रों तथा उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में पाई जाती है ।

Post a Comment

0 Comments

Close Menu