मृदा का वर्गीकरण
भारत की प्रमुख मिट्टियों में कांपीय (जलोढ) मृदा देश के लगभग 43.4% क्षेत्रफल पर, लाल मिट्टी 18.6% क्षेत्रफल पर, काली मृदा 15.2% क्षेत्रफल पर, लेटराइट 3.7% क्षेत्रफल पर तथा अन्य (मरुस्थलीय, लवणीय, पर्वतीय व अन्य गौण स्वरूप वाली मृदा) मिट्टियां 17.9% क्षेत्रफल पर विस्तृत है । मिट्टियों की प्रकृति, गुणधर्म, जलवायु व वनस्पति के साथ अन्तर्सम्बन्धों के आधार पर भारतीय मृदा का वर्गीकरण अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से किया है । प्रमुख मिट्टियों का वर्गीकरण निम्नानुसार है –
1. कांपीय या जलोढ मृदा
भारत में कांपीय या जलोढ मृदा विशाल सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानी क्षेत्र, नर्मदा, ताप्ती, महानदी, गोदावरी, कृष्णा व कावेरी की घाटियों एवं केरल के तटवर्ती भागों में लगभग 15 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में विस्तार है । यह अधिकांशतः हिमालय से निकलने वाली नदियों द्वारा अपरदित तलछट से निर्मित है । यह हल्की से मध्यम राख जैसे भूरे रंग की है तथा गठन में रेतीली से दोमट प्रकार की है । विशाल सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदानी क्षेत्र में नदियों से बाढ़ आने से नवीन कांप मिट्टी की परत बिछ जाती है, जिसे ‘खादर’ कहा जाता है । पुरानी कांप वाली व बाढ़ से अप्रभावित मृदा ‘बांगर' कहलाती है । बांगर में कंकड़ तथा अशुद्ध कैल्सियम कार्बोनेट की ग्रंथियां पाई जाती हैं, जिन्हें ‘कंकड़’ कहा जाता है । शुष्क क्षेत्रों में लवण तथा क्षार के निक्षेप भी पाये जाते हैं, जिन्हें ‘रेह’ कहा जाता है । बांगर के निर्माण में चीका का प्रमुख योग रहता हैं, कहीं-कहीं दोमट या रेतीली-दोमट मिलती है । बांगर की उर्वरता बनाये रखने के लिए भारी मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है ।
कांपीय या जलोढ मृदा में पोटाश, फॉस्फोरस अम्ल, चूना तथा जैविक पदार्थों से समृद्ध होती है परंतु नाइट्रोजन व ह्यूमस तत्वों की बहुत कमी। होती है । चावल, जूट, गन्ना, गेंहू, मक्का, कपास, तिलहन तथा सब्जी आदि फसलों के लिए यह मिट्टी उत्तम है ।
2. लाल मृदा
यह मृदा प्रायद्वीपीय क्षेत्र में लगभग 6.1 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़िसा एवं झारखंड के क्षेत्रों में व्यापक रूप से तथा पश्चिमी बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में पाई जाती हैं । लाल मृदा आर्कियन ग्रेनाइट, नीस, कुड्डप्पा, विंध्यन तथा धारवाड़ शैलों के ऊपर हुआ है । इनका लाल रंग लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है । इस मिट्टी का गठन बालू से चीका तक, प्रधानत: दोमट प्रकार का है । इस मृदा में कंकड़, कार्बोनेट तथा कुछ घुलनशील लवण पाए जाते हैं । लाल मृदा में चूना, मैग्नीशियम, फॉस्फेट, नाइट्रोजन, पोटाश एवं ह्यूमस की कमी रहती है । उच्च भूमि में इस मिट्टी की परत महीन, बजरी युक्त, बलुई, पथरीली एवं छिद्रयुक्त होती है जबकि निम्नभूमियों व घाटियों में ये समृद्ध, गहरी, उर्वर तथा गहरे रंग की होती है जहां कपास, गेंहू, दहलन, तम्बाकू, ज्वार, अलसी,मोटे अनाज, आलू व फलों की खेती के लिए उपयुक्त होती है । उच्च भूमि के क्षेत्रों में यह बाजरे की फसल के लिए उपयुक्त होती है । यह अत्यधिक निक्षालित (Leached) मृदा है ।
3. काली मृदा
भारत में काली मिट्टी लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में विस्तृत है । यह मुख्यत: महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं उत्तरप्रदेश राज्यों में दक्कन लावा के अपक्षय से हुआ है । इस मिट्टी को स्थानीय भाषा में ‘रेगुर' या ‘काली कपास की मिट्टी' तथा अन्तर्राष्ट्रीय रूप से ‘उष्ण कटिबन्धीय चरनोजम’ कहा जाता है । इस मिट्टी का रंग गहरे काले से हल्के काले तथा चेस्टनट तक है । इस मृदा में लोहा, चूना, कैल्शियम, पोटाश, एल्यूमीनियम तथा मैग्नीशियम कार्बोनेट की प्रचुरता होती है किन्तु नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं जैविक पदार्थों की कमी रहती है । काली मृदा में लम्बे समय तक नमी धारण करने की क्षमता होती है । यह मृदा भीगने पर कठोर तथा सूखने पर दरारें पड़ जाती है । काली मृदा अत्यधिक उर्वरक होती है । यह कपास, तूर, खट्टे फल, तम्बाकू, गन्ना, ज्वार, मोटे अनाज, अलसी, अरण्डी, सफोला आदि फसलों के लिए उपयुक्त मृदा है ।
4. लेटराइट मृदा
देश के लगभग 1.26 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में लेटराइट मृदा का विस्तार है । यह मृदा मुख्यत: सह्याद्रि, पूर्वी घाट, सतपुड़ा, विंध्याचल, असम, मेघालय एवं राजमहल के क्षेत्रों में पाई जाती है । लेटराइट मृदा का स्वरूप ईंट जैसा होता है । यह भीगने पर कोमल तथा सूखने पर कठोर हो जाती है । यह उष्णकटिबंधीय प्रारुप की मृदा है जहां मौसमी वर्षा होती है । भीगने तथा सूखने से इनका सिलिकामय पदार्थ निक्षालित हो जाता है । इस मिट्टी का लाल रंग लोहे के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है । यह मृदा लौह तथा एल्यूमीनियम से समृद्ध होती है, किन्तु नाइट्रोजन, पोटाश, पोटेशियम, चूना तथा जैविक पदार्थ की कमी होती है । यह अनुपजाऊ मृदा है, परन्तु उर्वरकों के प्रयोग कर चावल, रागी, गन्ना, काजू आदि विविध फसले प्राप्त की जा सकती है ।
5. पर्वतीय मृदा
यह मृदा गठन में गाद युक्त दोमट प्रकार की, रंग में गहरी कत्थई होती है । यह सामान्यतः हिमालय की घाटियों एवं ढाल वाले क्षेत्रों में 2100 -3000 मीटर तक की ऊंचाई वाले भागों में पाई जाती है । यह कम गहराई वाली मृदा है । इस मृदा में फलदार वृक्षों की फसलें तथा आलू की खेती अच्छी होती है ।
6. मरूस्थलीय मृदा
राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, हरियाणा तथा दक्षिणी पंजाब के लगभग 1.42 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में मरूस्थलीय मृदा का विस्तार है । इस मृदा में घुलनशील लवणों का उच्च प्रतिशत रहता है तथा मोटे रवें की होने के कारण नमी धारण करने की क्षमता बहुत कम होती है । यह बलुई, कुछ स्थानों पर बजरी युक्त स्वरूप में है । इसमें जैविक पदार्थों तथा नाइट्रोजन की कमी है, परन्तु कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा भिन्न-भिन्न स्वरूप में पाई जाती है । सिंचाई की सहायता से खाद्यान्नी फसलें तथा कपास का उत्पादन उपयुक्त रहता है । असिंचित क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा तथा अन्य मोटे अनाज का उत्पादन उपयुक्त रहता है ।
7. वन्य मृदा
यह मृदा हिमालय के 3000 – 3100 मीटर की ऊंचाई तक शंकुधारी वन क्षेत्रों में जहां धरातल वृक्षों की पत्तियों से ढका रहता है तथा सह्याद्रि, पूर्वी घाट व उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्रों में पाई जाती है । इस मृदा में जीवांश की प्रचुरता होती है, परन्तु पोटाश, फॉस्फोरस तथा चूने की कमी रहती है । यह मृदा बागाती तथा फलोद्यानों के लिए आदर्श है ।
8. अन्य मृदाएं
1. लवणीय एवं क्षारीय मृदा
पंजाब, हरियाणा उत्तरप्रदेश तथा महाराष्ट्र के शुष्क भागों में लगभग 68000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में इस प्रकार की मृदा का विस्तार है । केशिका क्रिया से धरातल पर लवणों की परत बन जाती है । पंजाब एवं उत्तरप्रदेश के नहर सिंचाई क्षेत्रों में तथा उच्च जल स्तर के क्षेत्रों में इस प्रकार मृदा का विकास हुआ है । यह अनुर्वर मृदा स्थानीय भाषा में ‘रेह’, ‘कल्लर', ‘ऊसर’, ‘राथड’, ‘थूर’, ‘चोपन’ आदि नामों से जानी जाती हैं । इस मृदा को जिप्सम, चूना तथा उचित अपवाह के प्रयोग कर तथा बरसीम, चावल, गन्ना आदि लवण प्रतिरोधी फसलें उगाकर पुनरुद्धारित किया जाता है । इस प्रकार की मृदा में चावल, गेंहू, कपास, गन्ना, तम्बाकू आदि प्रमुख फसलें उत्पादित होती है ।
2. पीट एवं दलदली मृदा
पीट मृदा मुख्यत: केरल राज्य में वर्षा ऋतु के समय जलमग्न होने वाले क्षेत्रों में पाई जाती है । यह काली, भारी एवं अत्यधिक अम्लीय होती है । धान की फसल के लिए पीट मृदा आदर्श होती है । यह जैविक पदार्थों से समृद्ध होती है, परन्तु पोटाश व फॉस्फेट की कमी होती है । दलदली मृदा उड़िसा, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश, बिहार के तटवर्ती क्षेत्रों तथा उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में पाई जाती है ।
0 Comments
Thank you for being with us.
Emoji