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प्राचीन भारतीय इतिहास के संवत

प्राचीन भारतीय इतिहास में संवत्सर (संवत) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। ये संवत्सर समय की गणना के लिए प्रयुक्त होते थे और समाज में महत्वपूर्ण घटनाओं, राजाओं के शासनकाल, और धार्मिक अनुष्ठानों को रिकॉर्ड करने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। विभिन्न संवतों ने भारतीय इतिहास में समय की गणना के विभिन्न तरीकों को प्रस्तुत किया, जो आज भी भारत के कई हिस्सों में प्रचलित हैं।

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संवत का अर्थ और महत्व

संवत शब्द संस्कृत के "संवत्सर" से निकला है, जिसका अर्थ है "वर्ष"। भारतीय परंपरा में, संवत्सर एक वर्ष की गणना का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यह सिर्फ एक साधारण कैलेंडर वर्ष नहीं है; यह धार्मिक, ऐतिहासिक, और ज्योतिषीय महत्व भी रखता है। संवत का उपयोग विशेष रूप से त्योहारों, अनुष्ठानों, और राजकीय घटनाओं को चिन्हित करने के लिए किया जाता है।

भारत में कई प्रकार के संवत प्रचलित रहे हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:

  1. विक्रम संवत
  2. शक संवत
  3. हिजरी संवत
  4. गुप्त संवत
  5. कलियुग संवत

विक्रम संवत

विक्रम संवत भारत के सबसे प्रमुख और प्राचीन संवतों में से एक है। इसका प्रारंभ विक्रमादित्य नामक राजा द्वारा किया गया था, जो उज्जैन का एक महान शासक माना जाता है। इस संवत का प्रारंभ 57 ईसा पूर्व (ईसा पूर्व) से होता है।

विक्रम संवत का इतिहास

विक्रमादित्य ने इस संवत की स्थापना तब की थी जब उन्होंने शक राजाओं को पराजित किया था। इसे एक विजय संवत के रूप में स्थापित किया गया, जिससे भारतीय इतिहास में यह संवत अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया। इस संवत का प्रारंभ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष से होता है, और यह भारतीय समाज में नए साल की शुरुआत के रूप में मनाया जाता है।

विक्रम संवत की विशेषताएँ

विक्रम संवत भारतीय कैलेंडर में चंद्र-सौर प्रणाली पर आधारित है, जहाँ महीने चंद्र चक्र पर आधारित होते हैं और वर्ष सौर चक्र पर। इस संवत में 12 महीने होते हैं, और प्रत्येक महीने का नाम हिन्दू देवताओं और प्राकृतिक घटनाओं के आधार पर रखा गया है, जैसे चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ आदि।

वर्तमान में, विक्रम संवत मुख्य रूप से उत्तर भारत, नेपाल, और भारत के अन्य हिस्सों में प्रयोग किया जाता है। नेपाल में इसे राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में मान्यता प्राप्त है।

शक संवत

शक संवत भारत का एक और महत्वपूर्ण संवत है, जिसकी शुरुआत शक नामक एक विदेशी जाति से हुई थी। शक जाति ने भारत में कुछ समय तक शासन किया, और इसी काल में इस संवत की स्थापना हुई। शक संवत का प्रारंभ 78 ईस्वी से होता है, और इसे गुप्त सम्राटों द्वारा अपनाया गया था।

शक संवत का इतिहास

शक संवत का प्रारंभ 78 ईस्वी में हुआ, जब राजा कनिष्क ने इस संवत को स्थापित किया। कनिष्क, कुषाण वंश का एक महान सम्राट था, जिसने अपनी विजयों और धार्मिक सहिष्णुता के लिए प्रसिद्धि पाई। शक संवत को भारतीय इतिहास में इसीलिए महत्व दिया गया क्योंकि यह एक प्रमुख ऐतिहासिक काल की शुरुआत का प्रतीक है, जिसे बाद में गुप्त सम्राटों ने भी अपनाया।

शक संवत की विशेषताएँ

शक संवत को भारतीय राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में अपनाया गया है, और यह ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ ही प्रयोग किया जाता है। इस संवत में भी 12 महीने होते हैं, और यह सौर गणना पर आधारित होता है। इस संवत का प्रारंभ भी चैत्र मास से होता है, जो मार्च-अप्रैल के महीने में आता है।

हिजरी संवत

हिजरी संवत इस्लामी कैलेंडर का भारतीय रूप है, जो 622 ईस्वी में पैगंबर मुहम्मद के मदीना में हिजरत (प्रवास) से प्रारंभ होता है। यह संवत चंद्र कैलेंडर पर आधारित है और मुख्य रूप से भारत के मुस्लिम समुदाय द्वारा प्रयोग किया जाता है।

हिजरी संवत का इतिहास

हिजरी संवत का प्रारंभ 622 ईस्वी में हुआ, जब पैगंबर मुहम्मद ने मक्का से मदीना की यात्रा की। यह इस्लामी इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी, और इसे इस्लामी कैलेंडर के रूप में मान्यता दी गई। हिजरी संवत का उपयोग इस्लामी धार्मिक त्योहारों, जैसे रमज़ान, ईद-उल-फितर, और ईद-उल-अजहा को चिन्हित करने के लिए किया जाता है।

हिजरी संवत की विशेषताएँ

हिजरी संवत पूरी तरह से चंद्र कैलेंडर पर आधारित है, जिसमें वर्ष 354 या 355 दिनों का होता है। प्रत्येक महीने की शुरुआत नया चाँद दिखाई देने पर होती है। इस कैलेंडर में भी 12 महीने होते हैं, लेकिन ये महीने ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीनों से मेल नहीं खाते।

गुप्त संवत

गुप्त संवत गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में प्रारंभ हुआ एक और महत्वपूर्ण संवत है। गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में इसे प्रारंभ किया गया। यह संवत भारतीय इतिहास के "स्वर्ण युग" का प्रतीक है।

गुप्त संवत का इतिहास

गुप्त संवत का प्रारंभ 320 ईस्वी में हुआ, जब चंद्रगुप्त द्वितीय ने इसे स्थापित किया। यह संवत गुप्त साम्राज्य की राजनीतिक और सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाता है। इस समय में भारतीय कला, विज्ञान, साहित्य और धर्म में उल्लेखनीय प्रगति हुई।

गुप्त संवत की विशेषताएँ

गुप्त संवत भी सौर-चंद्र प्रणाली पर आधारित है और इसका उपयोग मुख्य रूप से गुप्त शासकों द्वारा राजकीय कार्यों और ऐतिहासिक घटनाओं को रिकॉर्ड करने के लिए किया जाता था। यह संवत भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान करता है।

कलियुग संवत

कलियुग संवत भारतीय धर्मग्रंथों में वर्णित चार युगों में से एक, कलियुग की शुरुआत का संवत है। इसे धर्म और नैतिकता के ह्रास का काल माना जाता है।

कलियुग संवत का इतिहास

कलियुग संवत का प्रारंभ माना जाता है कि 3102 ईसा पूर्व हुआ, जब भगवान श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का त्याग किया और द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। इसे कलियुग की शुरुआत का समय माना जाता है। इस संवत का प्रयोग पुराणों और धर्मग्रंथों में मिलता है, जहाँ इसे एक नए युग की शुरुआत के रूप में चित्रित किया गया है।

कलियुग संवत की विशेषताएँ

कलियुग संवत हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित चार युगों की श्रृंखला का अंतिम युग है। इसमें धर्म, सत्य, और नैतिकता का ह्रास होता है, और इसे संघर्ष और पीड़ा का युग माना जाता है। इस संवत का प्रयोग ज्योतिषीय गणनाओं और धार्मिक कथाओं में मिलता है।

अन्य संवत और उनके महत्व

युधिष्ठिर संवत

महाभारत युद्ध के बाद, युधिष्ठिर ने अपने शासनकाल में एक नए संवत की स्थापना की, जिसे युधिष्ठिर संवत कहा जाता है। इसका ऐतिहासिक प्रमाण हालांकि बहुत सीमित है, लेकिन इसे प्राचीन भारतीय समाज में समय गणना के रूप में प्रयोग किया गया।

कलचुरी संवत

यह संवत कलचुरी वंश के शासनकाल में प्रचलित हुआ। इसे राजाओं द्वारा राजकीय कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता था। यह संवत मुख्य रूप से मध्य भारत के क्षेत्रों में प्रचलित था।

मलयालम संवत

यह संवत मुख्य रूप से केरल राज्य में प्रचलित है और इसे "कोल्लम संवत" भी कहा जाता है। इसका प्रारंभ 825 ईस्वी से माना जाता है। यह संवत विशेष रूप से मलयाली समाज में महत्वपूर्ण है और ओणम जैसे त्योहारों के लिए समय का निर्धारण करता है।

संवतों का सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव

संवत केवल समय की गणना के साधन नहीं हैं, बल्कि वे सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक आस्था के भी प्रतीक हैं। प्रत्येक संवत एक विशेष कालखंड, राजा या धार्मिक घटना से जुड़ा होता है, जो समाज के लिए महत्वपूर्ण होता है। ये संवत विभिन्न समुदायों को उनकी सांस्कृतिक धरोहर से जोड़ते हैं और उन्हें अपनी परंपराओं के प्रति जागरूक करते हैं।

भारत में संवतों का महत्व आज भी कायम है। विक्रम संवत और शक संवत भारतीय पंचांग का हिस्सा हैं, जो हिंदू और राष्ट्रीय पर्वों की तारीखें तय करते हैं। हिजरी संवत इस्लामी त्योहारों का निर्धारण करता है, जबकि अन्य संवत विशेष समुदायों और क्षेत्रों में प्रचलित हैं।

निष्कर्ष

प्राचीन भारतीय इतिहास में विभिन्न संवत न केवल समय की गणना का माध्यम थे, बल्कि वे उस समय की राजनीतिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी प्रतीक थे। ये संवत भारतीय इतिहास की समृद्धि और विविधता को दर्शाते हैं, और उनकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।

इन संवतों के अध्ययन से हमें न केवल प्राचीन भारतीय समाज की समझ मिलती है, बल्कि यह भी ज्ञात होता है कि किस प्रकार से समय की गणना और समय का मापन विभिन्न कालखंडों में भारतीय जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है।

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